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Wednesday, October 9, 2013

अगले प्रधानमंत्री को लेकर लड़कियों की पहली पसंद के मामले में राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी में टाइ...पढ़िए सर्वे डिटेल्स...

युवा वोटर: अब बदलाव की आहट

 
युवा नौकरी, शिक्षा और काम करने वाली सरकार चाहते हैं
कमल निझावन गुडग़ांव के जमींदारों और भिवानी के हट्ठे-कट्ठे किसानों की पसीने से तर-बतर भीड़ को चीरते हुए 15 सितंबर को हरियाणा में रेवाड़ी में नरेंद्र मोदी की रैली में प्रेस गैलरी के सिरे पर पहुंच गए. इस 18 वर्षीय लड़के ने टी-शर्ट पहन रखी थी, जिस पर वह इठला रहा था. इस काली टी-शर्ट पर नरेंद्र मोदी का रंगीन पोस्टर था और उस पर लिखा था-इंडिया फर्स्टः माय डेफिनिशन ऑफ सेक्युलरिज्म. रोहतक के वैश्य कॉलेज के इस छात्र को गलत स्पेलिंग की कोई परवाह नहीं थी. वह तो बस अपने हीरो को सुनने आया था, जो रीडर नहीं लीडर है. वह बोला, ‘‘देखिए कैसे बोलते हैं. कोई कागज नहीं.’’ निझावन 1995 में पैदा हुए हैं. देश में उनके जैसे 18 से 22 साल के करीब 14.93 करोड़ नौजवान हैं जो 2014 के आम चुनाव में पहली बार वोट देने के हकदार होंगे. लेकिन 2009 के आम चुनाव में वोटर का प्रतिशत देखें तो लगता है कि पहली बार वोट देने वाले 9 करोड़ के आसपास होंगे.


किस बात के लिए चिंतित हैं पहली बार वोट देने वाले

मनमोहन सिंह के उदारवादी युग की संतान निझावन उन 90.2 प्रतिशत लोगों में शामिल है जिन्होंने इंडिया टुडे-सी वोटर सर्वे में कहा कि 2014 में वोट जरूर देंगे. इस सर्वे में 28 राज्यों में 5,014 लोगों ने जवाब दिए. 30 प्रतिशत से अधिक ने कहा कि बीजेपी को वोट देंगे, 47.3 प्रतिशत लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुनना चाहेंगे. जाहिर है हर कोई उनका प्रशंसक भी नहीं है. मुंबई में मुस्लिमबहुल भायखला इलाके में अकबर पीरभाई कॉलेज ऑफ कॉमर्स ऐंड इकोनॉमिक्स के 18 वर्षीय छात्र शादाब अंसारी से पूछ कर देखिए, वे साफ कहते हैं, ‘‘मैं कांग्रेस को वोट दूंगा क्योंकि उन्होंने हमें काम दिलाया है और अगर हमें कोई तकलीफ होती है तो वे तुरंत हमारी मदद के लिए पहुंच जाते हैं.’’



व्यावहारिक और राजनैतिक रूप से समझदार, भारत की मुक्त बाजार की फिजा में सांस लेने वाली पीढ़ी काम चाहती है. उन्हें ऐसी सरकार चाहिए जो उनके लिए संपन्नता की उस संभावना को साकार करे जिसमें वे पैदा हुए हैं. समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन कहते हैं, ‘‘उनके लिए नागरिकता के मायने शासन की ओर से तुंरत और कुशल काम करने से है.’’ उन्होंने पिछले 10 साल में गजब की ग्रोथ देखी है. उन्होंने अगस्त, 2011 में विरोध की ताकत और दिसंबर, 2012 में आक्रोश के उमड़ते सैलाब को देखा है. उन्होंने दुनिया को फ्लैट टीवी स्क्रीन और स्लीक मोबाइल फोन के नजरिए से देखा है. उन्हें अभी-अभी सीमाओं का एहसास हो रहा है. 2004 से 2005 और 2009 से 2010 के बीच नई नौकरियों का सृजन नहीं हुआ है. यह पिछले पांच साल के मुकाबले जबरदस्त गिरावट है, जब 6 करोड़ नई नौकरियों निकाली गई थीं. बेरोजगारी बहुत ज्यादा है. विश्व बैंक की 2010 वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल बेरोजगार आबादी में 15 और 24 वर्ष की आयु के नौजवानों का अनुपात 9.8 प्रतिशत है. 25 प्रतिशत से कुछ अधिक का कहना है कि 2014 के चुनाव में उनका प्रमुख मुद्दा महंगाई होगा. उसके बाद भ्रष्टाचार और नौकरियों की बारी आएगी. संकट में फंसी अर्थव्यवस्था में ये नतीजे हैरान नहीं करते. जीडीपी की ग्रोथ रेट 2008 में 9.7 थी जो अब 4.4 रह गई है. पिछले दशक के आर्थिक उफान ने उम्मीदों को जगाने का काम किया था और जब वे पूरी नहीं हुईं तो बेचौनी का भाव तो पैदा होना ही है.


अचानक वृद्धि की गवाह पीढ़ी, बेरोजगारों की पीढ़ी में तब्दील हो गई. उम्मीदों से लबरेज पीढ़ी, अभिशप्त हो गई. यह दुनियाभर में 15-24 वर्ष के उन करीब 30 करोड़ लोगों में शामिल है जो न काम करती है और न पढ़ती है. उनका पहला सरोकार नौकरी हासिल करना है, फिर माता-पिता की मंजूरी, परिवार के बड़े-बुजुर्गों के स्वास्थ्य और शिक्षा की बारी आती है. करीब 60 प्रतिशत को देश के राष्ट्रपति का नाम मालूम नहीं है, 86.5 प्रतिशत विपक्ष के नेता को नहीं जानते, 69.5 वित्त मंत्री का नाम नहीं जानते और 98.6 प्रतिशत बेखबर हैं कि मानव संसाधन विकास मंत्री कौन है. फिर भी हरेक के पास हर मुद्दे पर अपनी राय है. संस्थाओं की साख से लेकर पाकिस्तान के साथ युद्ध तक. समाजविज्ञानी दीपांकर गुप्ता कहते हैं, ‘‘ये लोग सहज रूप से बदलाव के लिए वोट कर देंगे, ऐसी किसी भी स्थिति के लिए जो फिलहाल उनके सामने मौजूद नहीं है. उनके पास बहुत आगे की सोचने की क्षमता नहीं है. वे प्रतीकों और करिश्माई व्यक्तित्व के असर से बहुत आसानी से पाला बदल सकते हैं.’’ इससे पता लगता है कि अण्णा हजारे 2011 में युवाओं के चहेते कैसे हो गए और उनमें से 88.6 प्रतिशत एक ताकतवर और फैसला लेने वाला प्रधानमंत्री क्यों चाहते हैं.

यूनिवर्सिटी कैंपस हो या मॉल हो या कैफे इंडिया टुडे  के रिपोर्टर्स को हर
 जगह 2014 के आम चुनाव में पहली बार वोट डालने जा रहे युवा मिल गए, और उन्होंने भारत को लेकर अपनी राय को इनके साथ साझा भी किया. एक ओर राहुल गांधी ‘पूरी रोटी, 100 दिन काम्य और ‘मुफ्त दवाई’ का वादा करते नजर आ रहे हैं तो दूसरी ओर मोदी अलग-अलग लक्षित समूहों को अलग-अलग कार्यक्रम बांटते दिखाई पड़ रहे हैं-नौजवानों के लिए कौशल विकास, पूर्व सैनिकों के लिए एक रैंक, एक पेंशन, महिलाओं के लिए उद्यमशीलता. टीम मोदी ने पक्की योजना बना ली है कि नौजवानों को सामान्य परिवार और छोटे से कस्बे से आए अपने नायक से पूरी प्रेरणा मिले. टीम राहुल देश के भविष्य में बड़ी हिस्सेदारी मांगते युवा और अधीर भारत को बड़ा सपना देखने से नहीं रोक सकती.


हैरान करने वाली यह बात है कि 1990 के दशक में सुर्खियों में रही सांप्रदायिकता की राजनीति आज भी अहम किरदार निभा रही है, हांलाकि बाबरी मस्जिद गिराए जाने के समय ये पीढ़ी डायपर में थी और गुजरात दंगों के समय जूनियर हाइस्कूल में पढ़ रही थी. फिर भी राष्ट्र की सामूहिक चेतना से ये यादें मिटी नहीं हैं. 47 प्रतिशत से कुछ अधिक का कहना है कि गुजरात दंगे अगले चुनाव में अहम मुद्दा होंगे, 49.4 प्रतिशत का मानना है राम मंदिर आज भी प्रासंगिक है.

जाहिर है कि देश के ताने-बाने में आस्था अटूट है. 82.2 प्रतिशत चाहते हैं कि अगली सरकार भारत की धर्मनिरपेक्ष साख कायम रखे. सिक्किम से आकर दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढऩे वाली 20 वर्षीया रोहिणी राय की नजर मंस मोदी का चेहरा-मोहरा और हाव-भाव भी पराए लगते हैं. हर नामचीन राजनैतिक दल इसी भय और नफरत को हवा देने की कोशिश कर रहा है. इसीलिए कांग्रेस के राशिद अल्वी को लगता है, ‘‘मुजफ्फरनगर दंगे, गुजरात और अयोध्या से बड़े मुद्दे होंगे.’’ लेकिन इसका अर्थ यह मान लेना हुआ कि पहली बार का मतदाता भारतीय राजनीति का पुराना राग दोहराएगा जो फीका पड़ चुका है. 


सड़क पर अहमियत साबित करने के बाद पहली बार वोट डालने जा रहा वोटर अपनी ताकत दिखाने को बेताब है. 18 वर्षीया दिधिती भट्टाचार्य कोलकाता यूनिवर्सिटी में लाइब्रेरी और इन्फॉर्मेशन साइंस की छात्रा हैं. उनका कहना है, ‘‘मेरे वोट से बहुत बड़ा फर्क पड़ेगा.’’ पुणे की मंडी में वजन ढोने का काम करने वाले 21 वर्षीय ध्यानेश्वर तेलंगे ने सूखे से तंग आकर सांगली में घर छोड़ा क्योंकि अपने दो एकड़ के खेत में खेती नहीं कर पा रहे थे. उनका एजेंडा अलग है. उन्हें परिवार का पेट पालना है. ‘‘सरकार सिंचाई का पक्का इंतजाम नहीं करती. मेरी दिहाड़ी 250 रु. है और मासिक खर्च रु. 5,000. कभी-कभी तो यह भी मालूम नहीं होता कि अगले वक्त का खाना नसीब भी हो सकेगा या नहीं.’’



भारत में इस समय 25 साल से छोटी आबादी करीब 60 करोड़ है और 1.2 अरब की कुल आबादी में से करीब 70 प्रतिशत 40 से नीचे के हैं. देश की औसत आयु 25 साल है लेकिन कैबिनेट मंत्रियों की औसत आयु 65 वर्ष है. वे अपने अस्तित्व की सच्चाई और कल्पना की ताकत के बीच झूल रहे हैं. सीवोटर के संपादक और सर्वे आकलन विशेषज्ञ यशवंत देशमुख का कहना है,  ‘‘पहली बार का वोटर देश को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष देखना चाहता है. इसके साथ ही उसे सुशासन भी चाहिए.’’



इसीलिए बीजेपी ने मोदी के वफादार अमित शाह की अध्यक्षता में एक चुनाव उप समिति बनाई है जिसमें पूनम महाजन और त्रिवेंद्र रावत शामिल हैं. महाजन ने बताया कि नतीजा तय करने में युवाओं की अहम भूमिका होगी. उनमें से करीब 40 प्रतिशत इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं और लगभग सबके पास मोबाइल फोन है. इसलिए उन तक पहुंचने वाली हर तरकीब का इस्तेमाल करने की कोशिश होगी.


इस रुझान से फायदा उठाने के खेल में पहली चाल बीजेपी ने चल दी है, भले ही वह हमेशा आगे नहीं रह पाती, लेकिन 18 साल में वोटिंग का अधिकार 1988 में राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने दिया था. दिवंगत प्रधानमंत्री ने उस समय कहा था कि इससे पता लगता है कि हमें देश के नौजवानों पर पूरा भरोसा है. अब बीजेपी इस उम्मीद को कांग्रेस के लिए निराशा की वजह बनाना चाहती है.

लेकिन सर्वेक्षण के नताजों से पता चलता है कि युवा और बेचौन आबादी के मामले में किसी भी बात की गारंटी नहीं है. क्या वे अपने वोट से सुशासन की नई परिभाषा गढ़ेंगे, जिसमें विभाजन का खतरा निहित है? क्या वे और अधिक समावेशी एजेंडा का समर्थन करेंगे जिसके साथ धर्मनिरपेक्षता का तमगा और ‘‘माई बाप’’ की खैरात बंधी हो? यह फैसला कर पाना आसान नहीं है, खासकर तब जब आपकी उम्र 18 साल हो.