अखिलेश का कार्यकाल (डेढ़ साल)
कुल दंगे: 107 *
मृतकों की संख्या: 125
वजह: धार्मिक उन्माद
* केवल उन दंगों को शामिल किया गया है जिनमें तीन दिन या उससे अधिक समय तक कर्फ्यू लगाया गया.
मायावती का कार्यकाल (पांच साल)
कुल दंगे: 6 *
मृतकों की संख्या: 4
वजह: धार्मिक उन्माद
* केवल उन दंगों को शामिल किया गया है जिनमें तीन दिन या उससे अधिक समय तक कर्फ्यू लगाया गया.
लखनऊ
में विधानसभा सत्र के दौरान 18 सितंबर को मुजफ्फरनगर दंगों से गुस्साया
विपक्ष अखिलेश यादव सरकार को निशाने पर लिए हुए था. संसदीय कार्य मंत्री
आजम खान दंगों पर सरकार का पक्ष रखते हुए भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)
विधानमंडल के नेता हुकुम सिंह को वॉकआउट न करने के लिए मना रहे थे.
इस
बीच मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कुछ कहना चाहते थे लेकिन आजम उनका हाथ दबाकर
उन्हें चुप रहने का इशारा कर रहे थे. लेकिन अखिलेश से रहा नहीं गया और
आखिरकार वे खड़े हुए और विपक्ष पर निशाना साधते हुए यह स्वीकार कर लिया,
''मुजफ्फरनगर दंगा मेरे राजनैतिक जीवन पर हमेशा एक बदनुमा दाग की तरह
रहेगा.”
यह बदनुमा दाग ऐसे युवा और मृदुभाषी मुख्यमंत्री पर है,
जिन्हें उनकी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री मायावती के मुकाबले ज्यादा
लोकतांत्रिक, मृदुभाषी और मिलनसार माना जाता है. यह बुनियादी तौर पर 40
वर्षीय अखिलेश और 58 वर्षीया मायावती की कार्यशैली के अंतर को दर्शाता है.
पूर्ण
बहुमत हासिल करने के बाद एक ओर जहां अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए
उनकी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता तैयार नहीं थे, वहीं चुनाव के पहले दिन से
ही मायावती अपनी पार्टी की निर्विरोध नेता रहती हैं और सत्ता की इकलौती
केंद्र होती हैं. इसके उलट उत्तर प्रदेश में यह कहा जाने लगा है कि राज्य
में साढ़े पांच मुख्यमंत्री हैं, और आधे मुख्यमंत्री कौन हैं? अखिलेश यादव.
जाहिर है, यह सब अराजकता की वजह से है, और यह अराजकता सबसे ज्यादा दंगों
के समय नुमायां होती है.
मंसूबों पर अमल नहीं
पिछले साल
मार्च में समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार बनने के बाद 2 जून को मथुरा के
कोसीकलां में हुए सांप्रदायिक दंगे के बाद मुख्यमंत्री को आने वाली
चुनौतियों के बारे में एहसास हो गया था. यही वजह थी कि इस दंगे के 15 दिनों
के भीतर 18 जून को राष्ट्रीय एकीकरण विभाग ने एक शासनादेश जारी कर राज्य
में सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए उठाए जाने वाले तौर-तरीकों का
जिक्र किया था.
इसमें हर जिले में सांप्रदायिक सौहार्द के लिए जिला
पंचायत अध्यक्ष की सरपरस्ती में जिला एकीकरण समितियों के गठन को अनिवार्य
कर दिया गया था. समिति का मुख्य कार्य हर महीने कम-से-कम एक बैठक कर उन
बिंदुओं को टटोलना था जिनसे जिले या इलाके में सांप्रदायिक तानेबाने पर चोट
पहुंच सकती थी.
ऐसी हर बैठक का ब्यौरा तैयार कर उसे शासन को भेजने
की जिम्मेदारी सीडीओ की थी. वास्तविकता यह है कि आदेश जारी होने के डेढ़
साल बाद भी किसी भी जिले में ऐसी किसी समिति का गठन नहीं हुआ है और इस
दौरान 107 छोटे-बड़े दंगे हो चुके हैं.
इसके बरअक्स बीएसपी शासनकाल
में केवल छह ऐसे वाकए हुए जिनमें सांप्रदायिक तनाव के कारण किसी इलाके में
तीन दिन या इससे अधिक कर्फ्यू लगाया गया. बरेली, मऊ, सहारनपुर, बहराइच,
मेरठ, गाजियाबाद में दंगों की चिनगारी भड़की लेकिन इन सभी को फैलने से
तुरंत रोक लिया गया था. बीएसपी के राष्ट्रीय महासचिव और मुस्लिम भाईचारा
कमेटी के प्रभारी रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी बताते हैं कि बीएसपी सरकार में
प्रदेश से लेकर बूथ स्तर तक भाईचारा कमेटियां सक्रिय रूप से काम कर रही
थीं.
हर महीने के पहले हफ्ते में इन कमेटियों की बैठकें हो जाती थीं
जिनमें समाज के सभी तबकों के लोग शिरकत करते थे. सिद्दीकी बताते हैं, ''हर
बैठक का ब्यौरा बीएसपी के जिला मुख्यालय और यहां से प्रदेश मुख्यालय को
भेजा जाता था. अगर इन कमेटियों के माध्यम से किसी भी इलाके में सांप्रदायिक
सौहार्द बिगडऩे की खबर मिलती तो पार्टी के पदाधिकारी अधिकारियों के साथ
मिलकर तुरंत उसका समाधान कराते थे.”

मायावती का इकबालमायावती की प्रशासनिक चीजों पर पैनी नजर होती थी. क्या-क्या होता था मायावती के शासन में:-
-डीजीपी, प्रमुख सचिव गृह और मुख्य सचिव से रोज मुख्यमंत्री आवास पर सुबह 10 बजे मीटिंग
-इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में आने वाली क्राइम की खबरों पर मायावती का सीधे नजर रखना
- दंगे और अपराध रोकने में नाकाम अपराधियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने में जरा भी देर नहीं लगाना
- मायावती ने अपने कार्यकाल में अधिकारियों में गुटबाजी को दूर रखने के लिए आइएएस एसोसिएशन की बैठक एक बार भी नहीं होने दी
- कैबिननेट सचिव शशांक शेखर सिंह की देखरेख में मुख्यमंत्री कार्यालय में असरदार अधिकारियों की तैनातीदंगों को लेकर 'जीरो टॉलरेंस’यही
नहीं, दंगों के मामले में मायावती प्रशासन का जीरो टॉलरेंस भी था. अप्रैल
2011 में मेरठ के काजीपुर में एक मस्जिद के इमाम के साथ मारपीट के बाद
हालांकि इलाके में कुछ नहीं हुआ लेकिन शहर जल उठा. प्रशासन ने सख्ती बरती
और मामले को तीन दिन के भीतर दबा दिया.
फिर भी एक थानाध्यक्ष और
डीआइजी को सस्पेंड कर जिलाधीश का तबादला कर दिया गया. दूसरी ओर, सपा के
कार्यकाल में दंगों की झड़ी लग गई. और मुजफ्फरनगर में गुजरात के बाद सबसे
बड़ा दंगा हो गया.
रिटायर्ड पुलिस महानिरीक्षक एस.एस. दारापुरी
बताते हैं, ''यूपी की पुलिस को सरकार का भी डर नहीं रह गया है. यही मुख्य
अंतर सपा और बीएसपी की सरकार की पुलिस के बीच है.” 2007 में सूबे की सरकार
पर काबिज होते ही मायावती ने पुलिस विभाग में पहला काम सब इंस्पेक्टर से
लेकर आरक्षी के तबादले में उनके घर के पास तैनात होने के प्रावधान को खत्म
करके किया था.
लेकिन अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री बनने के बाद
मायावती के फैसले को पलटकर अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनके घर के समीप
तैनात करने की व्यवस्था को दोबारा बहाल कर दिया. पिछले साल जून में 25,000
से अधिक पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों के तबादले किए गए. हालांकि यह
फैसला अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए बेहतर था लेकिन शासन के लिए काफी
नुकसानदेह साबित हुआ.
पुलिस कर्मचारियों के अपने घर के समीप तैनात
होने के बाद से ही उनके पक्षपातपूर्ण रवैये की जानकारी शासन को मिल रही है.
गृह विभाग के एक अधिकारी बताते हैं कि पिछले दिनों वाराणसी, इलाहाबाद,
मेरठ में हुई आपराधिक घटनाओं में थाने में तैनात पुलिसकर्मियों के अपने
परिचितों की मदद करने की शिकायतें मिली थीं. यही नहीं, मुजफ्फरनगर दंगे में
भी बड़ी संख्या में सब इंस्पेक्टर से लेकर हेड कांस्टेबल तक के भेदभाव
पूर्ण तरीके से काम करने की रिपोर्ट मिली है.
अधिकारियों में दम नहींमुजफ्फरनगर
दंगे में प्रदेश पुलिस के बड़े अधिकारियों ने खुद मौके पर कैंप न करके 5
सितंबर को पुलिस महानिरीक्षक (आइजी, लॉ ऐंड ऑर्डर) आर.के विश्वकर्मा को
मुजफ्फरनगर कैंप करने के लिए भेजा जो स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय लेने में
सक्षम नहीं थे. यह पहली बार था कि इतने संवेदनशील मामले में प्रदेश के
पुलिस विभाग के आला अधिकारियों ने घटना स्थल पर कैंप न किया हो.
मायावती
सरकार में डीजीपी विक्रम सिंह, एडीजी ब्रजलाल और प्रमुख सचिव गृह कुंवर
फतेह बहादुर संवेदशनशील मौके पर खुद जाकर निचले अधिकारियों की कमान संभालते
थे. विपक्ष के नेता और बीएसपी प्रवक्ता स्वामी प्रसाद मौर्य बताते हैं,
''अधिकारियों में इस बात का डर था कि यदि वे काम नहीं करेंगे तो कड़ी
कार्रवाई होगी. ऐसे में अधिकारी पूरे दमखम के साथ काम करते थे.”
बीएसपी
नेता मायावती के शासनकाल में सूबे के सांप्रदायिक माहौल को बिगडऩे से
बचाने की सबसे बड़ी चुनौती 30 सितंबर, 2010 को मिली जब हाइकोर्ट की लखनऊ
बेंच ने अयोध्या विवाद पर अपना फैसला सुनाया. यह तत्कालीन सरकार का
प्रशासनिक कौशल ही था जिसने सूबे में सांप्रदायिक तनाव की चिनगारी तक फूटने
नहीं दी.
हाइकोर्ट का फैसला आने के तीन महीने पहले तहसील से लेकर
गांव तक सीधे निगरानी की एक ऐसी फुलप्रूफ योजना तैयार कर दी गई थी. अफवाहों
पर काबू और संदिग्धों को पाबंद करने की यह सख्त योजना 2012 में सरकार के
बदलते ही ठंडे बस्ते में चली गई. यही वजह है कि एक के बाद एक दंगे होने के
बाद भी किसी भी जगह प्रशासन ने पहले से कोई एहतियात कदम नहीं उठाए.

बेबसी का खुला इजहारमायावती के मुकाबले अखिलेश की सरकार
नौकरशाहों के सामने खुलेआम अपनी बेबसी जाहिर करती है. सपा सरकार से जुड़े
एक व्यक्ति ने मुख्यमंत्री के हवाले से कहा, ''अधिकारी सरकार के खिलाफ हैं.
वे देर तक दफ्तरों में रुककर फोटोकॉपी करके सरकारी फैसलों को चुनौती देने
के लिए सूचना लीक करते हैं.”
यह कुल मिलाकर अखिलेश सरकार की लाचारगी
दर्शाती है. इसके उलट, मायावती के सबसे बड़े अधिकारी दिवंगत शशांक शेखर ने
पूरी नौकरशाही को चंगुल में कर रखा था. एक ओर जहां दुर्गा शक्ति नागपाल
जैसी नई अधिकारी के निलंबन पर हाहाकार मच गया, वहीं मायावती के प्रशासन में
प्रोमिला शंकर जैसी वरिष्ठ अधिकारी के निलंबन पर आइएएस एसोसिएशन चूं तक
नहीं कर पाई.
मायावती ने पांच साल ठसक के साथ राज किया और दंगामुक्त
शासन दिया, लेकिन प्रदेश का सामाजिक समीकरण वे अपने पक्ष में नहीं रख पाईं
और चुनाव हार गईं. अब अखिलेश के लिए अपना सामाजिक समीकरण बचाने की चुनौती
है क्योंकि दंगों से उनके जनाधार के बड़े हिस्से-मुसलमानों को चोट पहुंचती
है. अगर वे अफसरों को कंट्रोल नहीं कर पाए तो 2014 के लोकसभा चुनाव में
बीएसपी का पुराना नारा फिर रंग ला सकता है, ''चढ़ गुंडन की छाती पर, मोहर
लगाओ हाथी पर.”